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कछुआ और खरगोश

वो दोनों कभी दोस्त हुआ करते थे। क्या वाकई? ख़ैर एक दिन मज़ा था कि माखौल खरगोश कह गया ज़बान से "मैं बेहतर तुमसे" आज तक कछुआ इसे बस पैंतरों में पढता था आज कानों में होड़ तरंग बन कर तैर रही थी। कभी उस दौड़ का आगाज़ नहीं हुआ था और इस दौड़ का रेफ़री ? नदारद या की अजन्मा, non existent? या उन दोनों के अलावा सब कुछ जज! खरगोश, मखमली मुलायम, सफ़ैद। कछुआ, धीमा सुस्त? नहीं! अपनी ही पीठ के बोझ से दबा हुआ। वो पीठ है कि नियति? या पितरों का उपहार? वो ताबीज़ की तरह उस खुरदुरी खाल को पहनता है। उसका भाग्य उसका बोझ भी, ढाल भी। उस दौड़ में, जो कभी शुरू नहीं हुई वो खुरदुरे रस्ते पर, खुरदुरी चमड़ी लिए सरकता है। चलना ही कर्म है कर्म ही जीवन। विराम, विश्रांति जीवन का रुक जाना। कछुए की आयु लम्बी है वो पूर्वजो की याद को ढोता है खुरदुरे संघर्ष को ओढ़े, उम्र खोता है। खरगोश और कछुए दोस्त नहीं हो सकते वो प्रतिद्वंदी है। उनकी रेस जारी हैं और रेफरी अनेक।

पहली विदेश यात्रा

पहली विदेश यात्रा खोल देती है चक्षु, दुनिया के दूसरे छोर तक। जीवंत हो जाता है भूगोल। सुने कागज़ के नक्शों में तैरते दिखते हैं द्वीप अनंत हर टापू एक बोलता किरदार होता है। सैलानी तारो को देखा करते थे पहले अब तारों में उड़ते हुए, ज़मीन ताकते हैं। धरती की छाती चीरती कुछ खदाने दूर से चमकती हैं और दीखता है सुस्ताया सा बूढ़ा समंदर जो पानी की चादर ओढ़े खूब मज़े में सोता है हवा से उसकी चादर जितना चाहे फड़फड़ायें। पासपोर्ट के बनने पर देश आपको स्वीकारता है वहीँ इमीग्रेशन का ठप्पा लगने पर, आप पासपोर्ट को।

AC

होटल के कमरे का AC बंद हो गया इस अजनबी शहर में इकलौता दोस्त खामोश हो गया।

Music Club

कॉलोनी में एक नयी फॅमिली रहने आयी थी। फॅमिली क्या हैं शायद कोई न्यूली मैरिड हैं। अरे भाई कोई न्यूली मैरिड नहीं हैं, साथ रह रहे हैं बस! बस! क्या मतलब? इतने गिरे हुए लोग! मालूम नहीं लिव-इन का फैशन है आजकल अब तो अखबारों में भी लिखा आता है इसके बारे में आपको पता नहीं! हम्म अजीब बला हैं रसोई की खिड़की से झांको तो लड़का सब्ज़ी बनाता दीखता था जोरू का गुलाम, बिलकुल पर जोरू कैसे हुई? जब शादी ही नहीं हुयी तो! बस सब ऐसे ही है यह नज़राने कुछ ही दिनों के हैं जनाब शादी होने दो, प्रेम की पुंगी की कुकर से भी तेज़ हवा निकलेगी। कैसी बातें करते हो ? शादी! इन जैसे लोग शादी कहाँ करते हैं  जिस दिन लड़के ने खाना बनाना छोड़ा अगले दिन देखना दुश्मन हो जायेंगे एक दूसरे का मुँह नहीं देखेंगे यह यहाँ साथ नहीं टिकने वाले जल्द ही नए किरायदार आएंगे लिख के लेलो। लो फिर से शुरू हो गए., अजीबो गरीब गाने सुनते हैं अंग्रेज़ों की औलाद एक दिन उर्दू की ग़ज़लें और गीत सुने जा रहे थे तभी समझ आया मुसलमान है। फिर कॉलोनी में रहते हुए उन्हें तीन महीने हो चुके थे। लो तीन महीने हो गए अभी तक वही...

एक सवाल, राजुरा से

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बम्बई में आदमी तेज़ और गाड़ी धीरे चलती है। ट्रैन को पकड़ने की जल्दी में भागती नैना को पुल्ल पर चलती किसी गाड़ी जैसा महसूस हो रहा था। वो धीमें चलने वालों को राईट से ओवरटेक कर रही थी और कुछ लोग, उसे। इस क्रम में चलते चलते उसने यकायक ब्रेक लगाए और खुद को पुल्ल के बायीं ओर पार्क किया। एक काका वजन तोलने की मशीन के साथ इस चहलकदमी को दिन रात सुना करते थे , आँखों पर मोटा काला चश्मा साफ़ बता रहा था कि वो आँखों से देख नहीं सकते थे। नैना ने कहा " काका वजन देख रही हूँ " "हाँ हाँ देखो देखो .. बैग बसता नीचे रख कर तुलना" उन्होंने हिदायत दी। नैना मशीन पर चढ़ी तो शरीर की चर्बी का बोझ खुद ब खुद उसे महसूस होने लगा, मशीन के कांटे को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। फिर भी जब मशीन की सुई ने उससे सच कहा तो प्रतिउत्तर में चूँ  तक न निकली । "वजन बढ़ गया?" काका ने माहौल के मौन को तोड़ा "चिंता मत करो थोड़ा घुमा फिरा करो, कम हो जायेगा , tension नहीं लेने का" काका ने नैना की चुप्पी में मशीन के कांटे को अपनी सीमा को पार करते देख लिया था। नैना मुस्कुराते हुए आगे बढ़ी। और उसका दिमाग पैरों...

काला कौआ

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कौओ का कर्कश शोर यकायक हवा में ऐसे भर गया जैसे समुद्र के पानी में नमक।  शोर भयंकर था।  मोहल्ले के सारे कौओ ने एक साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करने की ठान ली थी।  काउ काउ के शोर से सब कौओ का अहम् ह्रदय और फिर गले के रास्ते से बह कर हवा में घुल रहा था और बहते बहते राजेश के कानो में घर कर रहा था।  राजेश को यह बात पसंद नहीं आई । राजेश अभी अभी अपनी बीवी के सीटने सुनकर बाथरूम से गीले कपड़ो की बाल्टी उठा कर बालकनी में लाया था। लिस लिसे गीले कपड़े सूखाने की क्रिया के बीच कौओ की यह कर्कश वाणी रविवार की उस सुबह को ऐसे प्रदूषित कर रही थी की राजेश का सांस लेना दूभर हो गया। "यह देखो हरामज़ादे कैसे हज़ारो में हो गए है।  काले - भद्दे - मांसाहारी।  कैंची जैसी चोंच न जाने कब किसकी खोपड़ी को फच्च से पोपला कर दे! बस चले तो सालों को एक एक कर के गोली से उड़ा दूँ।" राजेश के हाथ में अब गीली लिस लिसी सलवार नहीं, मज़बूत गँठीली राइफल थी।  कंधे से सटी बन्दूक कौओ के गले नोच लेने के लिए अधीर।  राजेश अब दुखियारा पति और नाकामयाब वकील न रहा।  हाथो में कसी बन्दूक ने उसे आत्मविश्वा...

ग्लानि नहीं!

सिनेमा के दौरान राष्ट्रगान पर खड़े होने वाले बूढ़े काका के लिए अपनी सीट से उठते हैं क्या?  क्या वो खड़े हो पाते है असहाय के साथ किसी आंसू बांटती महिला के लिए अपनी भागती ट्रेन को छोड़ कर?  क्या वो लालच की आराम कुर्सी का त्याग कर पाते हैं जब ज़रूरत पड़े या न भी पड़े तो! नहीं ग्लानी मत लाना हो सकता है जवाब न हो हर वक़्त क्योंकि ऐसा करना ज़रूरी नहीं हैं जैसे ज़रूरत नहीं मेरे बॉलीवुड के पुलाव में देशभक्ति के त ड़ के की ।