Posts

Showing posts from January, 2017

काला कौआ

Image
कौओ का कर्कश शोर यकायक हवा में ऐसे भर गया जैसे समुद्र के पानी में नमक।  शोर भयंकर था।  मोहल्ले के सारे कौओ ने एक साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करने की ठान ली थी।  काउ काउ के शोर से सब कौओ का अहम् ह्रदय और फिर गले के रास्ते से बह कर हवा में घुल रहा था और बहते बहते राजेश के कानो में घर कर रहा था।  राजेश को यह बात पसंद नहीं आई । राजेश अभी अभी अपनी बीवी के सीटने सुनकर बाथरूम से गीले कपड़ो की बाल्टी उठा कर बालकनी में लाया था। लिस लिसे गीले कपड़े सूखाने की क्रिया के बीच कौओ की यह कर्कश वाणी रविवार की उस सुबह को ऐसे प्रदूषित कर रही थी की राजेश का सांस लेना दूभर हो गया। "यह देखो हरामज़ादे कैसे हज़ारो में हो गए है।  काले - भद्दे - मांसाहारी।  कैंची जैसी चोंच न जाने कब किसकी खोपड़ी को फच्च से पोपला कर दे! बस चले तो सालों को एक एक कर के गोली से उड़ा दूँ।" राजेश के हाथ में अब गीली लिस लिसी सलवार नहीं, मज़बूत गँठीली राइफल थी।  कंधे से सटी बन्दूक कौओ के गले नोच लेने के लिए अधीर।  राजेश अब दुखियारा पति और नाकामयाब वकील न रहा।  हाथो में कसी बन्दूक ने उसे आत्मविश्वास से भर दिया था।  आँखों के सामने ह

ग्लानि नहीं!

सिनेमा के दौरान राष्ट्रगान पर खड़े होने वाले बूढ़े काका के लिए अपनी सीट से उठते हैं क्या?  क्या वो खड़े हो पाते है असहाय के साथ किसी आंसू बांटती महिला के लिए अपनी भागती ट्रेन को छोड़ कर?  क्या वो लालच की आराम कुर्सी का त्याग कर पाते हैं जब ज़रूरत पड़े या न भी पड़े तो! नहीं ग्लानी मत लाना हो सकता है जवाब न हो हर वक़्त क्योंकि ऐसा करना ज़रूरी नहीं हैं जैसे ज़रूरत नहीं मेरे बॉलीवुड के पुलाव में देशभक्ति के त ड़ के की ।

Murder of a melody

You want a million views like a monkey in the zoo throw in a few jibes to earn a bunch of likes Do whatever you like. But Just don't don't don't don't meddle with the melodies. A moment of innocence and longing a moment of metamorphosis with child like fear was squashed to death. Though you couldn't careless But I wish you'd be mind full And I wish the the listeners cared!

बाईजी

सुशीला जी के चहरे पर अनोखी सी चमक थी।  शरीर थोड़ा भारी दीखता था मगर मन कतई नहीं।  सिटी बस की भीड़ में उनकी ठहाके की गूँज फैल रही थी, कुछ लोग उस तीखी गूँज से व्याकुल ज़रूर दिखे मगर अधिकतर नौजवान इयरफोन्स की आड़ में दुबके हुए भीड़ में भी एकांत का आनंद  ले रहे थे, इसीलिए बस की यात्रा भीड़ भड़क्के में भी यथास्थिति भीड़ की व्यवस्था को बनाये हुए चल रही थी। सुशीला जी ने सीट पर फैले एक नवयुवक को झंझोड़ते हुए व्यवस्था में थोड़ा उत्पात पैदा किया. "कहाँ उतरेंगे?" नौजवान अपने संगीतमय वर्तमान से जुदा होते हुए भीड़ के यथार्थ में आ गिरा "श्याम नगर डिपो" उसने जवाब दिया। "हम्म, तो हम तो गोल चक्कर तक जायेंगे। देखते नहीं लेडीज सवारी है।" सुशीला जी ने शांति की चादर में सैकड़ो छेद करते हुए उस युवक को उसकी सीट से बेघर कर अपनी मुस्कान समेत स्वयं को सीट न. 17 पर विराजमान किया। पहली नज़र में जैसे सुशीला जी की मुस्कान आपका ध्यान खिंचती थी वैसे ही कुछ देर में उनकी उपस्थिति आपको कुछ अट पटा भी महसूस कराती। उनकी बैंगनी डज़ाइनदार मगर सिरे से मटमैली सलवार कमीज, और टूटी हुयी चेन वाला रेगज़ीने क

कुछ ख़ास नहीं

कहने के लिए कुछ बात चाहिए कुछ कौतुहल, कुछ विचार चाहिए बहुत चुप रहे है इन दिनों कुछ लफ्ज़ अब उधार चाहिए। कविता दूर हैं कितने दिन हुए ! फिर कोई इम्तिहान चाहिए।

फेयरी टेल

कुछ दिनों से समीर के घर पर काम करने जा रही थी। हम साथ एक फिल्म पर काम कर रहे थे, मुम्बई में उस समय कोई ठिकाना नहीं था तो उसी के घर पर बैठ कर बातचीत और लिखावट का काम जारी था।  समीर अपनी साथिन साशा के साथ रहता था, उन्हें साथ देख कर काफ़ी अच्छा लगता।क्या तरतीब से रहते थे दोनों ! किसी घर की सुंदरता, उसकी भव्यता से ज़्यादा बारीकियों में होती है , इसलिए जब बाथरूम में गुदाई किया हुआ टॉयलेट पेपर देखा तो देखते ही घर की व्यवस्था पर न्योछावर हो गयी। धन संपन्न होना, और एक सुरुचि पूर्ण जीवन जीने में काफ़ी फ़ासला है। समीर और साशा ने इस भेद को पूरी तरह नगण्य कर एक ऐसी सुन्दर दुनिया उस 2 BHK में रची थी। सिर्फ सामान और साज सज्जा नहीं, उनकी बातचीत में भी विवेक का अतिरेक था।  अधिकतर उनकी मातृभाषा, तमिल में एक दूसरे से सरलता और तरलता से बात करते थे।  एरोमा से भरी उस हवा में आसानी से शब्द बहते हुए कुछ खेल करते थे। शब्दों से दोनों का ही गहरा प्रेम था। वो उनके घर में रखीं सैकड़ों किताबो को देखकर अंदाज़ा लग गया था कि शब्द उन्हें अपने लगते थे, उन्हें उनसे जूझना न होता था, लड़ना न होता था।  मुझसे दोनों ही अधिकतर अं