कहने के लिए कुछ बात चाहिए
कुछ कौतुहल, कुछ विचार चाहिए
बहुत चुप रहे है इन दिनों
कुछ लफ्ज़ अब उधार चाहिए।
कविता दूर हैं
कितने दिन हुए !
फिर कोई इम्तिहान चाहिए।
कार्य करने के लिए हो। बात बोलने के लिए ख्याल आने लिए खाना खाने के लिए किताब पढ़ने के लिए दिन रात दिन रात के लिए पेड़ उगने के लिए फूल खिलने के लिए फल जड़ बूटी छाँव के लिए न भी हो तो भी हो. बस इतना ही।
छोटे कमरे की टांड पर रखा बक्सा कभी कभी खुलता था। दिवाली की सफ़ाई या दादी के श्राद्ध पर खाने पर आयी पंडिताइन के लिए कोई लेन देन की साड़ी या किसी बेशकीमती चीज़ की खोज में जो उसमें नहीं मिलती थी। मिलता था बस कोई कोरा ब्लाउज पीस, छोटी लड़की की उससे छोटी फ्रॉक, आधी बाह का स्वेटर, या एक नया नटंक बटुआ १ रूपए के करारे नोट के साथ। मैं भी कभी बक्सा खोलती हूँ तो मिल जाता है कभी कोई चुटकुला कभी कोई तस्वीर या काम आने वाली कुछ पंक्तियाँ। मगर चाहे जो निकाल लो बक्सों की किस्मत में नहीं लिखा खाली होना वो हमेशा भरे होते हैं। छोटे कमरों की टांड पर - लेटे; बक्से रहते हैं अगली सांस के इंतज़ार में।
मई के दिनों में, अंदर गर्म कमरे में - पंखा बंद और बाहर लूँ के थपड़ों से सिकती देह। गर्म लूँ की ठंडी तासीर से। आदत हो गयी थी निवाया दूध छोड़ कर गरमा गर्म चाय की और खौलते पानी से नहाने की। अच्छा लगता था गर्म गर्म गुस्सा और गुस्सा करने वाला गुस्से को घोल के पीया और फिर उलटी भी कर डाली जिससे फिर शरीर गर्म हुआ पसीना आया एक ठन्डे विश्राम के बाद हल्का बुखार आया। सुनसान ठंडेपन से गहमागहमी की गर्मी तोड़ फोड़ की गर्मी इतनी पसंद थी कि गंगा के मुख से बिन नहाये लौट आयी गंगोत्री पहुँच कर भी गर्मी याद आयी। Like Comment Share
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