छोटे कमरे की टांड पर रखा बक्सा कभी कभी खुलता था। दिवाली की सफ़ाई या दादी के श्राद्ध पर खाने पर आयी पंडिताइन के लिए कोई लेन देन की साड़ी या किसी बेशकीमती चीज़ की खोज में जो उसमें नहीं मिलती थी। मिलता था बस कोई कोरा ब्लाउज पीस, छोटी लड़की की उससे छोटी फ्रॉक, आधी बाह का स्वेटर, या एक नया नटंक बटुआ १ रूपए के करारे नोट के साथ। मैं भी कभी बक्सा खोलती हूँ तो मिल जाता है कभी कोई चुटकुला कभी कोई तस्वीर या काम आने वाली कुछ पंक्तियाँ। मगर चाहे जो निकाल लो बक्सों की किस्मत में नहीं लिखा खाली होना वो हमेशा भरे होते हैं। छोटे कमरों की टांड पर - लेटे; बक्से रहते हैं अगली सांस के इंतज़ार में।