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Showing posts from 2013

गीत

अपनी शॉर्ट फ़िल्म के लिए हाल ही यह गाना लिखा है। सुझाव आमंत्रित हैं। चम्पक वन कि तितली उड़ कर बैठी इन पेड़ो पर डाल डाल के स्वाद चखे रंगीन हो गए इसके पर। न न न इस बार नहीं अब ये हाथ न आएँगी एक बहाना सोचेगी और उड़नछू हो जायेगी। कुसुमों  कि बगियन में यह रोज़ देर से आती हैं अखियाँ को थोडा मिचती  है और धीरे से मुस्काती हैं।  चतुर चपल है यह तितली चकमेबाज़ भी खूब है यह सोच सममझ कर - जाल बिझा कर  अपनी चाल चलाती हैं। झाँसी कि रानी बीत गयी ये तो झांसो वाली रानी है!

कल्पना

दूर गए हो तो फिर से भाने लगे हो  क्यूंकि जो कुछ भी दूर है , वांछित हैं। जो यहाँ नहीं, वो था या होगा। वर्तमान में होने का अर्थ कुछ रहा है क्या? ये स्मृतिमय  जगत हैं  स्मृतियाँ सर्वप्रिय हैं। प्रत्यक्ष कभी  प्रसन्न कर पाया हैं  क्या? यदि हाँ तो वो वर्तमान भी क्षणिक ही होगा, भूत की छाया में आज वो बन गया होगा स्मृति का भूत। अब दूर हो तो खुश हूँ तुम्हारा शारीर जो समक्ष  नहीं  शारीर, जिसने मेरी वासना का खून किया हैं। मैं अब सिनेमा के हीरो में तुम्हारी छवि देख सकती हूँ। जश्न मना सकती हूँ, तुम्हारे होने का  अपनी कल्पना में जो यथार्थ से कितनी दूर हैं। आजकल सब यही तो कर रहे हैं।

एटम बम का परमाणु

एटम  बम के गढ़ में बैठा  वो परमाणु  इठलाता है,  दिखाता  है धौस,  डराता है बस एक आँख के इशारे भर से। अक्लमंद समझता है    की जैसे है बस वो ही  सशक्त, सार्थक और सुरक्षित। किन्तु विस्फोट के बाद  कोटि अणुओं के साथ  मिलाता हुआ आलाप  बिलबिलाता हुआ,  चिथड़ो  में  कौतुहल के बीच  पश्चाताप में झुलसता  रोता भी है  वो एटम बम का परमाणु। इस धरती की मौत के मातम में  रहोगे तुम भी  कलपते, अकुलाते अपने AC वाले घर में बैठे  तुम्ही तो हो वो एटम बम के परमाणु।

चुप्पी

२-३ BHK में बंद हैं  लोग , और उनकी आकांक्षाएं  भी। टेलीविज़न में बंद है  ज़िन्दगी, और तमाम ख्वाहिशें लोगों की। घुटा हुआ स्वातंत्र्य  ताकता हैं खिड़की से बाहर  देखता है मॉल, प्रेम और स्वाद।  की ये स्वातंत्र्य पनपा है  रंगीन टीवी सेट से ही। खो गयी है बातचीत,  पैसा बोल रहा है  ब्रांडेड कपड़े खुस-फुसा  रहे है .. जितनी ऊँची इमारतें  उतनी चुप्पी  उतना एकांत  देश की ईंटों से बनती ये इमारतें   इन इमारतों  से बनता देश  कैसा होगा? कैसा हो गया है!

दुस्साहस

देख रही हूँ    की पार कर दी है हद  प्लास्टिक की बोतलों ने  विज्ञापनों ने,  पोस्टरों ने। की मुह फाड़ लिया है  अंतस में पसरी  तृष्णा ने। और रिस रहा है धुआं  उसके शरीर से  व्याप्त, आकाश में। की विषैली हो गयी है  बरखा  शवास  मिट्टी  फल  अन्न  और यह आत्मा भी। सचमुच हद हो गयी! अब इस बखेड़े को  समेटना  मुश्किल है, बहुत मुश्किल। प्रश्न  है तुम सब से  हे कलामयी  कविगण  चित्रकार  फिल्मो के रचयिता,  व रंगकर्मी .. की क्या लांघ सकते हो सीमाएं  तुम भी ? क्या अंतस की अकुलाहट के इंधन  से  निर्मित कर सकते हो  सार्थक रचनामयी  अभिकल्पित फैक्टरियाँ अनन्य। क्या कर सकते हो दुस्साहस  घरो तक, दिलों तक पहुचने का  जैसे की पहुचे हैं  यह  बोतलें और यह विज्ञापन।

एक फोटोग्राफ

हर्सिल के गेस्ट हाउस की छत पर  दिसम्बर की भोर में  सहम गया था पानी किनारी से उतरते उतरते  हवा में ही  अंगूर के लच्छे सा  टंग गया था। कैसा अदभुत होता है  वो क्षण  जब जीवन की गति  थम जाती है कुछ समय के लिए  और बन जाती है कैमरे में बंद  एक मौन आकृति। रवि के आने पर  ऊष्मा की औषधि  गटक कर  बर्फ से बूंद  विदा लेती है, और रह जाती है स्मृति मेरे पास  एक फोटोग्राफ।

आवश्यकता: एक शब्दकोष की

क्या कोई लायेगा शब्दकोष मेरे लिए  या  देगा भेंट यूँ ही कभी  की मन में भावना का वेग उमड़ रहा है  सरसराता फिसल रहा आँखों के गड्ढो से  स्तनों के बीच तक  या मेरी जिव्हा पर ही। पर पहुँच नहीं पा रहा  है  शब्दरूप में  मेरी डायरी के पन्नो तक। ऐसे क्षण की अपेक्षा शायद की नहीं थी कभी  मैंने या मेरे अध्यापको ने ही इसलिए बिन शब्दावली  मात्र कुछ अंको के सहारे ही  ढुन्ढने को भेज दिया था अपना रास्ता। अब कहीं और आ पहुंची हूँ और पीछे जाना मुमकिन नही समय निकल रहा है  क्या पहुचेगा मुझ तक कोई शब्दकोष! या भावनाएं मेरी  निर्मूल्य, तुच्छ  सिमट जाएगी इसी क्षण में  और फिर रेडियो का गाना  आएगा कचरा उठाने के लिए।