दुस्साहस



देख रही हूँ   
की पार कर दी है हद 
प्लास्टिक की बोतलों ने 
विज्ञापनों ने, 
पोस्टरों ने।
की मुह फाड़ लिया है 
अंतस में पसरी 
तृष्णा ने।
और रिस रहा है धुआं 
उसके शरीर से 
व्याप्त, आकाश में।
की विषैली हो गयी है 
बरखा 
शवास 
मिट्टी 
फल 
अन्न 
और यह आत्मा भी।

सचमुच हद हो गयी!

अब इस बखेड़े को समेटना 
मुश्किल है,
बहुत मुश्किल।

प्रश्न  है तुम सब से 
हे कलामयी 
कविगण 
चित्रकार 
फिल्मो के रचयिता,
 व रंगकर्मी ..
की क्या लांघ सकते हो सीमाएं 
तुम भी ?

क्या अंतस की अकुलाहट के इंधन से
 निर्मित कर सकते हो 
सार्थक रचनामयी 
अभिकल्पित फैक्टरियाँ अनन्य।

क्या कर सकते हो दुस्साहस 
घरो तक, दिलों तक पहुचने का 
जैसे की पहुचे हैं 
यह बोतलें और यह विज्ञापन।

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