कल्पना
दूर गए हो तो फिर से भाने लगे हो
क्यूंकि जो कुछ भी दूर है ,
वांछित हैं।
जो यहाँ नहीं, वो था या होगा।
वर्तमान में होने का अर्थ कुछ रहा है क्या?
ये स्मृतिमय जगत हैं
स्मृतियाँ सर्वप्रिय हैं।
प्रत्यक्ष कभी प्रसन्न कर पाया हैं क्या?
यदि हाँ तो वो वर्तमान भी क्षणिक ही होगा,
भूत की छाया में आज वो बन गया होगा स्मृति का भूत।
अब दूर हो तो खुश हूँ
तुम्हारा शारीर जो समक्ष नहीं
शारीर, जिसने मेरी वासना का खून किया हैं।
मैं अब सिनेमा के हीरो में तुम्हारी छवि देख सकती हूँ।
जश्न मना सकती हूँ, तुम्हारे होने का
अपनी कल्पना में
जो यथार्थ से कितनी दूर हैं।
आजकल सब यही तो कर रहे हैं।
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