किसी ठौर का मिलना
सिंहपर्णी की झाड़ से उड़ा हुआ एक फोया दिशाहीन। सूक्ष्म , सरल , संवेदी। वायु के वेग से फ़रफ़रता स्वातंत्र्य के नशे में सराबोर। टकराकर किसी पुरातन वृक्ष के स्थायित्व से यकायक ; सकपकाता है, झुंझलाता है, फिर कुछ देर बाद शांत हो पाता है। अनुभव की छाया में किसी बिखरे हुए का बस जाना, टिक जाना उसके अस्तित्व का हनन है, या किसी सम्बल के सहारे निज निर्माण का नैसर्गिक अवसर ? 03.12.15