बाईजी

सुशीला जी के चहरे पर अनोखी सी चमक थी।  शरीर थोड़ा भारी दीखता था मगर मन कतई नहीं।  सिटी बस की भीड़ में उनकी ठहाके की गूँज फैल रही थी, कुछ लोग उस तीखी गूँज से व्याकुल ज़रूर दिखे मगर अधिकतर नौजवान इयरफोन्स की आड़ में दुबके हुए भीड़ में भी एकांत का आनंद  ले रहे थे, इसीलिए बस की यात्रा भीड़ भड़क्के में भी यथास्थिति भीड़ की व्यवस्था को बनाये हुए चल रही थी।

सुशीला जी ने सीट पर फैले एक नवयुवक को झंझोड़ते हुए व्यवस्था में थोड़ा उत्पात पैदा किया.
"कहाँ उतरेंगे?"
नौजवान अपने संगीतमय वर्तमान से जुदा होते हुए भीड़ के यथार्थ में आ गिरा
"श्याम नगर डिपो" उसने जवाब दिया।
"हम्म, तो हम तो गोल चक्कर तक जायेंगे। देखते नहीं लेडीज सवारी है।" सुशीला जी ने शांति की चादर में सैकड़ो छेद करते हुए उस युवक को उसकी सीट से बेघर कर अपनी मुस्कान समेत स्वयं को सीट न. 17 पर विराजमान किया।

पहली नज़र में जैसे सुशीला जी की मुस्कान आपका ध्यान खिंचती थी वैसे ही कुछ देर में उनकी उपस्थिति आपको कुछ अट पटा भी महसूस कराती। उनकी बैंगनी डज़ाइनदार मगर सिरे से मटमैली सलवार कमीज, और टूटी हुयी चेन वाला रेगज़ीने का भूरा पर्स, और मोची के करतबों का कई बार मंच बनीं उनकी चप्पलें , कुछ अलग कहानी सुनाते थे।  ज़्यादा देर नहीं करनी पड़ी, बस बैठते ही सुशीला जी ने खुद ही अपनी दास्ताँ के पन्ने अपने बगल बैठी ग़मगीन महिला के सामने खोल डाले।
"हम तो कायस्थों के हैं, पीहर में खूब ठाँठ थे हमारे। घर में दो भाई हैं, दोनों ही बढ़िया नौकरी करते हैं।  हमारी ही किस्मत ऐसी निकली है कि मुआ शराबी मर्द मिल गया।  बस दिन भर शराब पीते हैं और लड़ते हैं, बाकि कुछौ नहीं करते। अग्रवाल नर्सिंग होम हैं न, वहीँ बाईजी का काम पकड़ लिए हैं , बस अब उसी से घर का खरचा पानी चला रहे हैं। कहाँ घर में ४ -४ नौकर हैं और यहाँ लोगों को पानी पिलाते हैं तो आँख रोती है।"
"दोनों बच्चो को भी इंग्लिस मीडियम में डाल दिये हैं, अब खुद ही घर आते हैं तो चाबी पड़ोस में दे दिए हैं , पड़ोस वाली आंटी से चाबी लेकर खुद ही ताला खोल लेते हैं और अपना खाना पीना देख लेते हैं।"
महिला उनको सुन रही थी, उसका ध्यान मगर कहीं और मंडरा रहा था, शायद वो हर बार बस की इसी सीट पर बैठ कर अपने बाएं कान से अनेक दुखभरी कहानियां सुन चुकी थी। महिला के लिए इस कहानी में दिलचस्पी लेने का सिर्फ यही तरीका था की वो इस बार दूसरी बाजू बैठती और कहानी अपने दाएं कान से सुनती। इसकी न गुंजाईश थी न ज़रूरत। सुशीला जी अनवरत बोलें जा रही थी।
"किसी और के सहारे रहने से क्या फायदा, अब हम तो खुद ही का देखते हैं और मस्त रहते हैं।  बस एक घंटे की झिक झिक रहती हैं जब आदमी घर आता हैं, थोड़ा बड़बड़ाता है और थक कर सो जाता है।  अब तो हम आदत ही डाल लिए हैं। 7:30  बजे चूल्हा चौका निपटा के तैयार हो जाते हैं, भैंस जैसा शरीर तो हैं ही हमारा सींग भी लगा के खड़े हो जाते है, की आ जाओ अब लड़ लेते हैं। कहते ही सुशीला जी ने फिर एक जोर का ठहाका मारा, उनकी अनुपस्थित श्रोता का ध्यान उखड़ा और वो एक बार फिर बस की खड़खड़ाहट के प्रति जागरूक हो गयी।

"अरे जवानी में होश कहाँ रहता हैं, किशनगंज के कुल 17 लड़को को रिजेक्ट किये थे, 18वें थे यें , जो सूरत से धोखा खा गए।  दिखने में क्या हैं न एक दम फर्स्ट क्लास लगे तो हमने भी हाँ भर दी। न काम देखा न कुछ और.... बस अब उसी सूरत से माथा फोड़ लेते हैं हर रोज, थोड़ी कसरत हो जाती है बस!"

कंडक्टर की सिटी ने उनकी सहयात्री को पट से उठने का मौका दे दिया। अपने फटेहाल झोले को उठाते हुए वो सुशीला जी के पैर और सीट नंबर 14 के पिछवाड़े के बीच बानी पतली गली से फुर्ती से निकल गयी।

खड़खड़ाती बस ने एक तीख़ा ब्रेक लगया, सब यात्री एक बार के लिए आगे की ओर झुक गए। व्यवस्था कुछ बाधित हुयी और एक छोटे विराम के बाद बस ने अपनी दौड़ फिर शुरू  की। सुशीला जी ने खिड़की वाली सीट पर अपना हक़ जमाया और अपने भूरे बैग की खुले मुह पर ख़राब चैन को घिस कर आधे में रख दिया। अब वो बैग के बंद होने की तस्सली सी थी मगर बैग अब भी खुला था की नहीं यह कहना मुश्किल था।

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