काला कौआ
कौओ का कर्कश शोर यकायक हवा में ऐसे भर गया जैसे समुद्र के पानी में नमक। शोर भयंकर था। मोहल्ले के सारे कौओ ने एक साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करने की ठान ली थी। काउ काउ के शोर से सब कौओ का अहम् ह्रदय और फिर गले के रास्ते से बह कर हवा में घुल रहा था और बहते बहते राजेश के कानो में घर कर रहा था। राजेश को यह बात पसंद नहीं आई । राजेश अभी अभी अपनी बीवी के सीटने सुनकर बाथरूम से गीले कपड़ो की बाल्टी उठा कर बालकनी में लाया था। लिस लिसे गीले कपड़े सूखाने की क्रिया के बीच कौओ की यह कर्कश वाणी रविवार की उस सुबह को ऐसे प्रदूषित कर रही थी की राजेश का सांस लेना दूभर हो गया। "यह देखो हरामज़ादे कैसे हज़ारो में हो गए है। काले - भद्दे - मांसाहारी। कैंची जैसी चोंच न जाने कब किसकी खोपड़ी को फच्च से पोपला कर दे! बस चले तो सालों को एक एक कर के गोली से उड़ा दूँ।" राजेश के हाथ में अब गीली लिस लिसी सलवार नहीं, मज़बूत गँठीली राइफल थी। कंधे से सटी बन्दूक कौओ के गले नोच लेने के लिए अधीर। राजेश अब दुखियारा पति और नाकामयाब वकील न रहा। हाथो में कसी बन्दूक ने उसे आत्मविश्वा...