कुछ दृश्य आंदोलन के

१९ दिसंबर को जब अगस्त क्रांति मैदान के लिए टैक्सी ली तो बूढ़े ड्राइवर ने कहा, "
मगर वहां तो मोर्चा निकल रहा है".. 
"जी वहीँ जाना हैं" 
मैंने जवाब दिया और मन ही मन आश्चर्य किया की अब तक यह न मालूम था प्रोटेस्ट को हिंदी में मोर्चा कहते हैं, यह शब्द सुना बहुत और शायद अर्थ भी मालूम था मगर प्रोटेस्ट और मोर्चा शब्द को कभी साथ में नहीं देखा था. उसके बाद हमने कुछ बात नहीं की, हम करना ज़रूर चाहते थे.. मगर संकोच ज़बान पर ताला लगा कर अक्सर चाबी इधर उधर फ़ेंक जाता हैं, उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ. 

मैदान भर गया था, सड़क पर जुलुस जारी था, हज़ारों की तादाद में लोग सड़क पर उतरे थे अपने अपने गुटों में लोग आज़ादी और इंकलाब के नारे लगा रहे थे. मैं चुप थी. एक दृष्टा बनकर उस मैदान की सैर की, मैंने अपने आप को समझा लिया था की काम छोड़ कर यहाँ तक आने का जो मैंने आभार अपने आप और अपने देश पर किया वो काफ़ी हैं और इस समय की ज़रूरत को पूरा करता हैं...तो लसलसी भीड़ में बहती हुयी मैं देख रही थी मोर्चे के अलग अलग रंग. 

हज़ारो की भीड़ में जो उभरकर के दिख रहे थे वो थे पोस्टर और प्लेकार्ड्स और उन पर लिखे सन्देश.. कुछ को देख के दिल पसीज कर हामी भरता तो कुछ के sense of humour पर वारा जाता। एक पोस्टर पर अंग्रेज़ी में लिखा था, “मोदी एक बिमारी हैं और अब मैं बीमार हूँ" दूसरे पर बड़े अक्षरों में लिखा था “Devide & Fool” जिसमें फूल के दो गोलों में मोदी और शाह की तस्वीरों के होने से हास्यास्पद चित्र बन रहा था. मगर सबसे हास्यास्पद था इस गंभीर मोर्चे में शिव सेना के होने/ न होने पर भी अपने लिए सहानुभूति इकट्ठी करने वाला एक पोस्टर जो ज़रूर किसी पार्टी कार्यकर्ता के हाथों वहां पहुंचाया गया होगा, “हम उद्धव ठाकरे को धन्यवाद देते हैं, इस आंदोलन में हमारे साथ के लिए..” राजनैतिज्ञ और कलाकार PR करने का कोई मौका छोड़ते नहीं!

खैर एक बात जो पहले ही नज़र में महसून हुयी वो थी वह थी वहां मौजूद  मुसलमानों की बहुतायत, पुरुष भी और महिलायें भी, यह बात एक तरह से तो अच्छी हैं मगर मन में एक बात ज़रूर आयी कि, ऐसे मौकों पर भी सिर्फ वहीँ समुदाय क्यों बहार आ रहा हैं जिसके प्रताड़ित होने की बात कही जा रही हैं? भारत के जैन, ब्राह्मण, बनिए...वो लोग अपने काम धंधे छोड़ कर यहाँ क्यों नहीं? अच्छी बात थी की युवा वर्ग में इस तरह के कोई जातीय समीकरण नहीं थे. मगर भारत में हमें अभी भी जाती और धर्म से ऊपर उठकर गलत को गलत कहने की हिम्मत और ख़ास तौर पर एक इच्छा पैदा होनी बाकी हैं. अगर यह इच्छा, एक दूसरे के साथ खड़े होने की भावना हम में पूरी तरह ज़िंदा होती तो हम बहुत पहले इतनी बड़ी संख्या में मोर्चा निकालते, मगर हमने lynching, demonetisation, महिला उत्पीड़न, कश्मीर में हुयी हिंसा और अभी तक जारी अमानवीयता आदि के अनेकों कड़वे घूँट , 'च च..बेचारे' कह कर अपने घरों, ऑफिसों, थडियों, और cafes में पी गयी अनगिनत चाय की चुस्कियों के साथ पीएं हैं.  शुक्र हैं की यह दिन आया और आज हम बोलने पर उतारू हैं... मगर शर्मनाक हैं की इस आंदोलन को, पीड़ा से निकली शुद्ध, कच्ची आह को भी अनेकों षड्यंत्रों और यातनाओं द्वारा कुचला जा रहा हैं. मुंबई की उस रैली में जब हज़ारों युवक ज़ोरों से हल्ला बोल रहे थे, एक बूढ़े काका हाथ में कुछ लिपटा हुआ तिरंगा लिए सड़क के किनारे बस स्टॉप की बेंच पर सिमटे हुए बैठे थे और उनके बगल में उन्ही के परिवार की एक लड़की, शायद बेटी या बहु पता नहीं कौन , ज़ोरों से उनसे कह रही थी...यहाँ क्यों बैठे हो ? जाओं बीच में खड़े हो...अपनी आवाज़ बुलंद करों! चचा जान बस धीमें से मुस्काएं, मैंने उनकी शकल पर वहीँ संकोच देखा जिसने मुझे भी घेरे हुए था, मगर उनके चेहरे की मुस्कराहट में संकोच के साथ एक भोलापन भी था. उनकी छवि हमेशा मन में छपी रहेगी। और फिर एक पोस्टर देखा "it is so bad that even introverts are here"

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उस शाम मैं एक बार फिर उस जूस की दूकान पर पहुंची, जहाँ  जूस वाला जो बेहद स्टाइलिश और यंग इंटरप्रेन्योर की स्टाइल में एक मेज़ भर पर अपनी दूकान चलता है.  मैंने अपना आर्डर दे दिया.  उस शाम कोई और ग्राहक नहीं थे , और जूस वाला अपने मोबाइल में घुसा पड़ा था, उसने झट पट मेरा जूस मुझे पकड़ाया और फिर गढ़ गया अपने मोबाइल में, 
“यह हुड़दंग नहीं तो और क्या हैं ?” न्यूज़ एंकर की आवाज़ कौंध रही थी, प्रदर्शनकारियों द्वारा पत्थर बाज़ी और पुलिस बेबस, कुछ ऐसी तस्वीरें झलक रही थी.
मेरा भ्रम टुटा..... बेटा तुम्हारी और इनकी timeline में बेहद अंतर हैं. जैसे तुम अपने सच में विश्वास रखती हो वैसे ही वो जनाब अपने सच में जूस  वाले से बात छिड़ी तो पता चला वो खुश था की कुछ मुसलमान मारे गए... 
"अच्छा हुआ" उसने कहा. 
“अछ्हा हुआ !” शर्मनाक!
 मैं यह बात सुनकर दुखी हुयी मगर सच में यह मेरे कानों के लिए कुछ नया नहीं था, सवर्णों के घर में अक्सर इस तरह की बातें कही-सुनी जाती हैं, मैं इन बातों का घर में भी विरोध करती हूँ और यहाँ भी किया, जूस वाले ने बात को घुमाया ज़रूर मगर साफ़ ज़ाहिर था उसके इरादे पक्के थे, वो मोदीजी के गुणगान करने लगा “अब मोदी जी ने देखो  कितने आसानी से मंदिर का रोड़ा ख़तम कर दिया...सुप्रीम कोर्ट को ज़िम्मा दे दिया।।उनके पास कहाँ समय हैं इन मामलों में पड़ने का...." 
जूस का घूंट ख़तम किया, ज़बान पर एक कड़वाहट सी ठहर गयी थी जो अंतस तक महसूस हुयी। 

मगर सबसे दर्दनाक हादसा तब हुआ जब तरन ताल के निर्मम साफ़ पानी में जैसे उस शाम एक काँटा सा चुभा, मेरे बगल में एक बारह-पंद्रह साल का लड़का तैर कर आ खड़ा हुआ और सामने बैठे कोच से बतियाने लगा;
“आज रोशन नहीं आया?" कोच ने पूछा 
"नहीं..उसका मन नहीं था।" फिर वो हंसा और आगे कहा
 “आज  हमने उसकी गली पर नया नाम लिख दिया "पाकिस्तान गली” वहां सब मुसलमान रहते हैं इसलिए , रोहन बेचारा अकेला जैन हैं वहां”
मेरे कान खड़े हुए. 
कोच ने उसकी बात को बढ़ावा दिया 
“कैसी हैं पाकिस्तान गली? डर लगता होगा वहां ?"
मैंने उन्हें घुरा और यकायक मेरा सिर हिला,  बच्चे ने मुझे प्रश्न करते हुए देखा .. 
मैंने कहा “बहुत गलत बात, ऐसे हिन्दू मुसलमान नहीं करते", 
कोच  को देखा तो वो थोड़ा शर्मिंदा हुआ कहने लगा, "हाँ मैं भी उसे यही समझा रहा था"
मगर उस बच्चे को मेरी बात ज़्यादा समझ नहीं आयी। उसके चेहरे से मुझे आभास हुआ की शायद पहली बार उसके सामने ऐसा विरोध व्यक्त किया गया हैं. "यह गलत है" ऐसा कहा गया है.  वो बस चुप हो गया, शर्मिंदा नहीं। 

मैं ज़्यादा कुछ कह नहीं पायी, झट से पानी में दुबक कर छिप गयी और पानी के निर्मल आवेग में अंतःकरण से एक दृश्य उभर आया:

एक दिन था जब टीवी पर “सय्योनी" गाना बज रहा था, मेरी माँ मुँह बनाती हुयी आयी..
"यह क्या लगा रखा हैं, बेहद ख़राब लोग हैं यह.. इन्हें सुनने की क्या ज़रूरत" 
उस समय सौभाग्यवश बुआ के लड़के, मेरे भैया साथ  बैठे थे, वो जवान थे मुझ से 10-15 साल बड़े, मैं शायद 7-8 साल की. 
उन्होंने स्तब्ध हो कर कहा 
“अरे मामीजी बच्चो को यह बातें क्यों सिखाती हो.... बेटा कोई ख़राब लोग नहीं होते....तू मम्मी की बात मत सुना कर“

उस दिन मेरे दिलमें एक हलचल हुयी थी जो आज भी याद है. शायद यही कारन है की माँ की बात जीवन भर नहीं मानी, और एक अच्छी बेटी न होने का अफ़सोस भी रहा 
मगर शुक्र हैं उस दिन का, कि एक द्वंद्व हमेशा ज़िंदा रहा. 

इस राजनीती, इस शोर शराबें में देश के बच्चे भी पिस रहे हैं. 
सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं, सताय जा रहे हैं, मगर जो ज़हर फ़ैल रहा है, उससे आगे भी उत्पीड़न की राजनीती  ज़िंदा रहेगी. 
सिर्फ हमारी timeline हमारे सक्रीय होने का प्रमाण नहीं। हमें उन तक पहुंचना होगा जो हमारे timeline  से परे हैं. दूसरी विचारधारा के लोगों को ब्लॉक करना हल नहीं... एक संवाद ज़रूरी हैं...ख़ास तौर पर बच्चो से.


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