कछुआ और खरगोश

वो दोनों कभी दोस्त हुआ करते थे।

क्या वाकई?

ख़ैर एक दिन
मज़ा था कि माखौल
खरगोश कह गया ज़बान से
"मैं बेहतर तुमसे"
आज तक कछुआ इसे बस पैंतरों में पढता था
आज कानों में होड़ तरंग बन कर तैर रही थी।

कभी उस दौड़ का आगाज़ नहीं हुआ था
और इस दौड़ का रेफ़री ?
नदारद
या की अजन्मा,
non existent?
या उन दोनों के अलावा सब कुछ
जज!

खरगोश, मखमली
मुलायम, सफ़ैद।

कछुआ, धीमा
सुस्त?
नहीं!

अपनी ही पीठ के बोझ से दबा हुआ।
वो पीठ है कि नियति?
या पितरों का उपहार?

वो ताबीज़ की तरह उस खुरदुरी खाल को पहनता है।
उसका भाग्य उसका बोझ भी, ढाल भी।

उस दौड़ में, जो कभी शुरू नहीं हुई
वो खुरदुरे रस्ते पर, खुरदुरी चमड़ी लिए
सरकता है।

चलना ही कर्म है
कर्म ही जीवन।
विराम, विश्रांति
जीवन का रुक जाना।
कछुए की आयु लम्बी है
वो पूर्वजो की याद को ढोता है
खुरदुरे संघर्ष को ओढ़े, उम्र खोता है।


खरगोश और कछुए दोस्त नहीं हो सकते
वो प्रतिद्वंदी है।
उनकी रेस जारी हैं
और रेफरी अनेक।

Comments

Popular posts from this blog

कार्य करने के लिए हो।

Hello

Quarantina