एक सवाल, राजुरा से
बम्बई में आदमी तेज़ और गाड़ी धीरे चलती है। ट्रैन को पकड़ने की जल्दी में भागती नैना को पुल्ल पर चलती किसी गाड़ी जैसा महसूस हो रहा था। वो धीमें चलने वालों को राईट से ओवरटेक कर रही थी और कुछ लोग, उसे। इस क्रम में चलते चलते उसने यकायक ब्रेक लगाए और खुद को पुल्ल के बायीं ओर पार्क किया। एक काका वजन तोलने की मशीन के साथ इस चहलकदमी को दिन रात सुना करते थे , आँखों पर मोटा काला चश्मा साफ़ बता रहा था कि वो आँखों से देख नहीं सकते थे। नैना ने कहा " काका वजन देख रही हूँ " "हाँ हाँ देखो देखो .. बैग बसता नीचे रख कर तुलना" उन्होंने हिदायत दी। नैना मशीन पर चढ़ी तो शरीर की चर्बी का बोझ खुद ब खुद उसे महसूस होने लगा, मशीन के कांटे को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। फिर भी जब मशीन की सुई ने उससे सच कहा तो प्रतिउत्तर में चूँ तक न निकली ।
"वजन बढ़ गया?"
काका ने माहौल के मौन को तोड़ा "चिंता मत करो थोड़ा घुमा फिरा करो, कम हो जायेगा , tension नहीं लेने का" काका ने नैना की चुप्पी में मशीन के कांटे को अपनी सीमा को पार करते देख लिया था। नैना मुस्कुराते हुए आगे बढ़ी। और उसका दिमाग पैरों की गति से भी तेज़ भागता हुआ यकायक बम्बई से पूना स्टेशन पहुँच गया।
पूना स्टेशन पर उस दिन भीड़ बहुत थी। नैना को अपने ऑडिशन के लिए एक बार फिर बम्बई का चक्कर लगाना था। वो एक बड़े महेंगे कॉलेज से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी, मगर उससे भी ज़्यादा मन उसका एक्टिंग में था। सिर्फ 19 साल की थी मगर फिर भी समय से पहले बम्बई में अपना नेटवर्क बना लेना चाहती थी ताकि कॉलेज से निकलते ही बॉम्बे में एक्टिंग करियर बनाने निकल पड़े। सबसे अच्छी बात थी की पूना में हॉस्टल की चिक चिक ज़रूर थी मगर मम्मी पापा की रोक टोक नहीं, सो जब मन करता अपनी दीदी से कहकर नाईट आउट की एक झूठी दरख्वास्त वार्डन को भिजवाती, और बैग उठाकर रफ्फूचक्कर हो जाती। अगले साल इस जंजाल से भी पीछा छूटेगा, मुम्बई में एकदम इंडिपेंडेंट घर लुंगी। नैना ने सोच हुआ था। अपने लुक्स को लेकर उसको कोई शक नहीं था। बड़ी बड़ी आँखें, गोरा रंग, लंबे बाल, और कॉलेज में सब लड़को और लड़कियों की ललचाती आँखें उसे अपनी सुंदरता का एहसास कराती रहती थी। मगर सिर्फ सुन्दर होने से कोई बड़ा स्टार नहीं बनता, इसलिए अपनी एक्टिंग ,डांसिंग, फिटनेस, डाइट और पढ़ाई सब को लेकर नैना बेहद एक्टिव थी।
रात के 8 बज रहे थे, नैना प्लेटफार्म की ओर बढ़ रही थी जब उसकी नज़र उस लड़की पर पड़ी। वो लड़की सैकड़ों अतरंगी, भागते लोग और कुछ फटेहाल- सुस्त भिखारियों से अलग थी। न जल्दी में न सुस्ती में। वो खोयी हुयी थी , हाथ में छड़ी ले प्लेटफार्म पर भीड़ से टकराती हुयी यहाँ से वहाँ हो रही थी, कुछ बुदबुदा रही थी। नैना उसको एक झलक भर देख आगे बढ़ गयी, ट्रेन बस आने को थी। वो दस कदम आगे बढ़ी थी की मन ने करवट बदली, वो पलट कर उस लड़की की तरफ आयी। लड़की अंधी थी। नैना के पास आने पर किसी आभास मात्र से बोल पड़ी "लक्ष्मी ताई!"
"तुम्हे कहाँ जाना है? अकेली हो?"
"लक्ष्मी ताई कुठे आहे?"
"कहाँ जाना है? तुम्हारी ताई यहाँ नहीं है"
"राजुरा"
"क्या?"
"राजुरा"
"क्या मतलब?"
"माझा गांव"
"तुम्हारा गांव"
लड़की ने सिर हाँ में हिलाया।
नैना न इस लड़की को जानती थी, न लक्ष्मी ताई को, न राजुरा को! मुम्बई जाने वाली एक्सप्रेसस प्लेटफार्म ४ पर आ चुकी थी।नैना को आगे निकलना चाहिए था, मगर इस लड़की का हाथ ऐसे छिटक कर! कैसे!
नैना ने अपनी नयी साथिन का हाथ थोड़ा और कस के थामा और भीड़ के सैलाब से एक छोटी नहर बनकर पुल से नीचे का रस्ता काट लिया।
नाव का है तुझा?
शीतल
ताई कहाँ गयी?
माहीत नाही
उनके संवाद कच्चे चावल जैसे थे, जैसे तैसे पेट भर सकते हो बस !
शीतल के पास एक प्लास्टिक की थैली और छड़ी थी, उसके अलावा कुछ और होने की उम्मीद भी नहीं थी फिर भी नैना ने पूछ डाला:
ताई का नंबर आहे ?
हो!
नंबर मिलाया तो किसी आदमी ने जवाब दिया। वो स्टेशन पर गुम हुयी दीदी का नहीं बल्कि गाँव में बैठे किसी भैया का नंबर था। शीतल ने उसे पूरा माजरा समझाया और वो बार बार उसे कह रही थी, तुम आना ज़रूर।
नैना ने आदमी से सारी बात समझी, राजुरा के लिए गाड़ी छूटने वाली थी। शीतल को उसके जनरल डब्बे में बैठा देना था, और राजुरा स्टेशन पर यह जनाब आ कर उसे ले लेंगे , ऐसी उम्मीद थी। फ़ोन रखते ही नैना, शीतल के साथ ट्रेन के जनरल डब्बे की ओर बढ़ी। उन्हें जल्दी थी फिर भी उनके कदम धीरे थे, नैना- नैना का बैगपैक - शीतल- शीतल के हाथ में टंगी हुयी थैली और सिकुड़ी हुयी छड़ी, सबका साथ तेज़ी से चलना दूभर था। मगर वो प्लेटफार्म पर ट्रेन के सहारे जनरल के डिब्बे तक का सफर बड़ा सुखद था। शीतल नैना के कोमल गुलगुले हाथो के आभास को जी भर जी रही थी, नैना भी एक अनोखे एनकाउंटर के रोमांच से भरी हुयी इस क्षण को घूंट घूंट पी रही थी, गरम अदरक वाली चाय की तरह। तभी शीतल ने नैना से एक ज़रूरी सवाल कर डाला "ताई मी काली आहे का ?"
दीदी मैं काली हूँ क्या?
नैना, एक गोरी चिट्टी, बड़ी बड़ी आँखों वाली, लंबे बालों वाली लड़की इस सवाल का जवाब दे नहीं पायी। गाड़ी निकलने को थी, कुछ पैसे निकाल उसने शीतल के हाथ में थमाए और झटपट डिब्बे में बिठाया, आसपास के लोगो नें चलती ट्रेन में शीतल को चढ़ाने में भरपूर सहयोग दिया। गाड़ी तेज़ हो गयी थी, शीतल ने अपनी सीट और पैसे संभाल लिए थे। वो ख़ुशी से हाथ हिला कर नैना को अलविदा कह रही थी। नैना सोचने लगी थी कि कभी राजुरा जाकर शीतल की फिर से खोज करेगी और उसके सवाल का जवाब देगी। मगर उससे पहले उसे समझना था कि इस सवाल का जवाब क्या होगा ?
"वजन बढ़ गया?"
काका ने माहौल के मौन को तोड़ा "चिंता मत करो थोड़ा घुमा फिरा करो, कम हो जायेगा , tension नहीं लेने का" काका ने नैना की चुप्पी में मशीन के कांटे को अपनी सीमा को पार करते देख लिया था। नैना मुस्कुराते हुए आगे बढ़ी। और उसका दिमाग पैरों की गति से भी तेज़ भागता हुआ यकायक बम्बई से पूना स्टेशन पहुँच गया।
पूना स्टेशन पर उस दिन भीड़ बहुत थी। नैना को अपने ऑडिशन के लिए एक बार फिर बम्बई का चक्कर लगाना था। वो एक बड़े महेंगे कॉलेज से फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी, मगर उससे भी ज़्यादा मन उसका एक्टिंग में था। सिर्फ 19 साल की थी मगर फिर भी समय से पहले बम्बई में अपना नेटवर्क बना लेना चाहती थी ताकि कॉलेज से निकलते ही बॉम्बे में एक्टिंग करियर बनाने निकल पड़े। सबसे अच्छी बात थी की पूना में हॉस्टल की चिक चिक ज़रूर थी मगर मम्मी पापा की रोक टोक नहीं, सो जब मन करता अपनी दीदी से कहकर नाईट आउट की एक झूठी दरख्वास्त वार्डन को भिजवाती, और बैग उठाकर रफ्फूचक्कर हो जाती। अगले साल इस जंजाल से भी पीछा छूटेगा, मुम्बई में एकदम इंडिपेंडेंट घर लुंगी। नैना ने सोच हुआ था। अपने लुक्स को लेकर उसको कोई शक नहीं था। बड़ी बड़ी आँखें, गोरा रंग, लंबे बाल, और कॉलेज में सब लड़को और लड़कियों की ललचाती आँखें उसे अपनी सुंदरता का एहसास कराती रहती थी। मगर सिर्फ सुन्दर होने से कोई बड़ा स्टार नहीं बनता, इसलिए अपनी एक्टिंग ,डांसिंग, फिटनेस, डाइट और पढ़ाई सब को लेकर नैना बेहद एक्टिव थी।
रात के 8 बज रहे थे, नैना प्लेटफार्म की ओर बढ़ रही थी जब उसकी नज़र उस लड़की पर पड़ी। वो लड़की सैकड़ों अतरंगी, भागते लोग और कुछ फटेहाल- सुस्त भिखारियों से अलग थी। न जल्दी में न सुस्ती में। वो खोयी हुयी थी , हाथ में छड़ी ले प्लेटफार्म पर भीड़ से टकराती हुयी यहाँ से वहाँ हो रही थी, कुछ बुदबुदा रही थी। नैना उसको एक झलक भर देख आगे बढ़ गयी, ट्रेन बस आने को थी। वो दस कदम आगे बढ़ी थी की मन ने करवट बदली, वो पलट कर उस लड़की की तरफ आयी। लड़की अंधी थी। नैना के पास आने पर किसी आभास मात्र से बोल पड़ी "लक्ष्मी ताई!"
"तुम्हे कहाँ जाना है? अकेली हो?"
"लक्ष्मी ताई कुठे आहे?"
"कहाँ जाना है? तुम्हारी ताई यहाँ नहीं है"
"राजुरा"
"क्या?"
"राजुरा"
"क्या मतलब?"
"माझा गांव"
"तुम्हारा गांव"
लड़की ने सिर हाँ में हिलाया।
नैना न इस लड़की को जानती थी, न लक्ष्मी ताई को, न राजुरा को! मुम्बई जाने वाली एक्सप्रेसस प्लेटफार्म ४ पर आ चुकी थी।नैना को आगे निकलना चाहिए था, मगर इस लड़की का हाथ ऐसे छिटक कर! कैसे!
नैना ने अपनी नयी साथिन का हाथ थोड़ा और कस के थामा और भीड़ के सैलाब से एक छोटी नहर बनकर पुल से नीचे का रस्ता काट लिया।
नाव का है तुझा?
शीतल
ताई कहाँ गयी?
माहीत नाही
उनके संवाद कच्चे चावल जैसे थे, जैसे तैसे पेट भर सकते हो बस !
शीतल के पास एक प्लास्टिक की थैली और छड़ी थी, उसके अलावा कुछ और होने की उम्मीद भी नहीं थी फिर भी नैना ने पूछ डाला:
ताई का नंबर आहे ?
हो!
नंबर मिलाया तो किसी आदमी ने जवाब दिया। वो स्टेशन पर गुम हुयी दीदी का नहीं बल्कि गाँव में बैठे किसी भैया का नंबर था। शीतल ने उसे पूरा माजरा समझाया और वो बार बार उसे कह रही थी, तुम आना ज़रूर।
नैना ने आदमी से सारी बात समझी, राजुरा के लिए गाड़ी छूटने वाली थी। शीतल को उसके जनरल डब्बे में बैठा देना था, और राजुरा स्टेशन पर यह जनाब आ कर उसे ले लेंगे , ऐसी उम्मीद थी। फ़ोन रखते ही नैना, शीतल के साथ ट्रेन के जनरल डब्बे की ओर बढ़ी। उन्हें जल्दी थी फिर भी उनके कदम धीरे थे, नैना- नैना का बैगपैक - शीतल- शीतल के हाथ में टंगी हुयी थैली और सिकुड़ी हुयी छड़ी, सबका साथ तेज़ी से चलना दूभर था। मगर वो प्लेटफार्म पर ट्रेन के सहारे जनरल के डिब्बे तक का सफर बड़ा सुखद था। शीतल नैना के कोमल गुलगुले हाथो के आभास को जी भर जी रही थी, नैना भी एक अनोखे एनकाउंटर के रोमांच से भरी हुयी इस क्षण को घूंट घूंट पी रही थी, गरम अदरक वाली चाय की तरह। तभी शीतल ने नैना से एक ज़रूरी सवाल कर डाला "ताई मी काली आहे का ?"
दीदी मैं काली हूँ क्या?
नैना, एक गोरी चिट्टी, बड़ी बड़ी आँखों वाली, लंबे बालों वाली लड़की इस सवाल का जवाब दे नहीं पायी। गाड़ी निकलने को थी, कुछ पैसे निकाल उसने शीतल के हाथ में थमाए और झटपट डिब्बे में बिठाया, आसपास के लोगो नें चलती ट्रेन में शीतल को चढ़ाने में भरपूर सहयोग दिया। गाड़ी तेज़ हो गयी थी, शीतल ने अपनी सीट और पैसे संभाल लिए थे। वो ख़ुशी से हाथ हिला कर नैना को अलविदा कह रही थी। नैना सोचने लगी थी कि कभी राजुरा जाकर शीतल की फिर से खोज करेगी और उसके सवाल का जवाब देगी। मगर उससे पहले उसे समझना था कि इस सवाल का जवाब क्या होगा ?
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