FTII Question March


अनुभव (01.07.15)

7 - 8 साल की रही होंगी। पापा ने गाड़ी को रोक कर सामने चलती बरात को देखते हुए कहा " माँ बाउजी कहाँ करते थे की राह चलते कोई संस्कृतिनक कार्यक्रम देखो तो रुक कर उसे देखना चाहिए।" वो तो बस एक बरात थी, आज एक जत्था था, एक रैली थी, हाथ में बड़े-बड़े बैनर और स्लोगन लिए चुप्पी साधे, हम दो लम्बी कतारो में पुणे की सड़को के ट्रैफिक के शोर को चीरते हुए चल रहे थे।  मालूम नहीं बाहर कितना कुछ बदला पर अंदर जैसे कुछ बदल रहा था।  पिछले बीस दिनों में टुकड़ो-टुकड़ो में इस हड़ताल में भागिदार रही हूँ और टुकड़ो-टुकड़ो में अंदर कुछ बदल रहा है।
देख रही थी की आज बहुतो ने हमे नहीं देखा। क्या सैकड़ो युवाओं की अनुशासित भीड़ कुछ दिलचस्प नज़ारा नहीं बनाती ? या अब हम नज़ारो में दिलचस्पी रखने वाले नहीं रहे ? या शायद आजकल हमे कुछ भी दिलचस्प नहीं लगता!
"सबसे खतरनाक होता है सपनो का मर जाना " पाश की कविता एक पोस्टर पर टंकी, सड़क पर आज कई सपने बनते-बिगड़ते देख रही थी। तभी bus stand के बगल से गुजारी तो वहां खड़े तीन नेत्रहीन छात्रों ने उस पोस्टर पकडे हुए लड़के से पूछा की यह माज़रा क्या है? यह रैली क्या है? ये सवाल क्या है ?
उन तक हमारी हलचल पहुंची थी, आँखों में अंधकार और हमारे मुह पर बंधी काली पट्टियों के बावजूद। उस क्षण मैंने कविता को मुस्कुराते देखा। हमारे सपनो की दुनिया में कुछ और साथी जुड़ गए उस वक़्त।

Comments

Popular posts from this blog

कार्य करने के लिए हो।

Hello

Quarantina